आचार्य श्रीराम शर्मा >> सफलता के सात सूत्र साधन सफलता के सात सूत्र साधनश्रीराम शर्मा आचार्य
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विद्वानों ने इन सात साधनों को प्रमुख स्थान दिया है, वे हैं...
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सतत कर्मशील रहें
सतत क्रियाशील ही सफलता का आधार है। जो निष्क्रिय है, कुछ नहीं करता, हाथ-पाँव नहीं हिलाता, आलस में पड़ा रहता है, वह वास्तविक अर्थों में जीवित भी नहीं कहा जा सकता। फिर सफल क्या होगा ?
यह ठीक है कि सफलता का प्रारंभ मनुष्य के आंतरिक जीवन में ही होता है। पहले मन में सफलता के उपयुक्त मनोभूमि का निर्माण होता है, समस्त महान कार्य विचार क्रम के रूप में मानस पटल पर उदित होते हैं, तब धीरे-धीरे बाह्य जगत में उनका प्रादुर्भाव होता है।
किसी कार्य की योजना बनाना, लंबी-लंबी बातें सोचना एक बात है, उसे वास्तविक जीवन में कार्यों द्वारा अभिव्यक्त करना बिल्कुल दूसरी बात है। अनेक व्यक्ति यह गल्ती करते हैं कि अपनी समस्त शक्तियाँ केवल सोचने-विचारने, योजना निर्मित करने में लगा देते हैं, वास्तविक संसार में प्रत्यक्ष कर दिखाने का उन्हें अवसर ही प्राप्त नहीं होता। ठोस परिश्रम करने की उन्हें आदत नहीं होती। वे हाथ-पाँव के कार्य से दूर भागते हैं। बातें हजार बनाएँगे कि कार्य रत्तीभर भी न करेंगे ? संसार में इतनी आवश्यकता बात-चीत, योजनाओं, जबानी जमा-खर्च की नहीं है, जितनी कार्य की। जो विचार कार्यरूप में परिणत हो गया, वह जीवित विचार कहा जाएगा, जिन विचारों, योजनाओं, पर अमल नहीं हुआ, जिन्हें प्रत्यक्ष जीवन में नहीं उतारा गया, वह मृतप्राय है। उन पर व्यय की गई शक्ति अपव्यय ही है।
क्रियात्मक कार्य ही संसार का निर्माण करता है। सफल व्यक्ति अपने आंतरिक विचार तथा बाह्य कार्य में पर्याप्त समन्वय करने की अपूर्व क्षमता रखते हैं। उनके पास क्रियात्मक विचारों की शक्ति रहती है। वे अपने विचारों को जीवन देते हैं अर्थात् उन पर निरंतर काम करते हैं और प्रत्यक्ष जीवन में उतारते हैं।
एक मनुष्य ने कहा है, "नरक का मार्ग अच्छी योजनाओं से बना है।" तात्पर्य यह है कि अच्छी बातें सोचने वाले केवल सोचते ही रह जाते हैं, हवाई जमा-खर्च करते रह जाते हैं। वास्तविक कार्य नहीं करते। सोचने ही सोचने में उनकी इतनी शक्ति व्यय हो जाती है कि कार्य करने की शक्ति नहीं बचती। जिन महत्त्वपूर्ण योजनाओं का कोई उपयोग न हो और जो कपोल कल्पना मात्र हों, उनसे क्या लाभ ?
कहते हैं रावण के पास अमृत के कई घड़े थे। यदि युद्ध से पूर्व वह उनका पान कर लेता, तो संभवतः मृत्यु को प्राप्त न होता किंतु रावण पान को टालता गया। योजनाएँ बनाता रहा। अंततः वह क्षय को प्राप्त हुआ।
नैपोलियन कहा करता था, "मुझसे कोरी बातें न करो। कार्य करके दिखाओ। मैं कार्य चाहता हूँ। ठोस जीता-जागता पुरुषोचित कार्य। बातें नहीं, मुझे कार्य चाहिए।"
"पर उपदेश कुशल बहुतेरे"—इस कथन में भी कार्य की महत्ता और ऊपरी उपदेश की मूर्खता पर व्यंग्य है। दूसरों को उपदेश देना, बड़ी-बड़ी बातें बनाना, "ऐसा करो, वैसा करो"-यह कहने वाले आपको अनेक साधु, संत, ढोंगी मिलेंगे। भगवा वस्त्र धारण कर सरल प्रकृति के नागरिकों को मूर्ख बनाना कितना सरल है, लेकिन जहाँ वास्तविकता का प्रश्न है, ये उपदेशक, दिखावटी नेता अपने असली स्वरूप में प्रकट हो जाते हैं। अनेक चोर, गठकंटे, खुफिया पुलिस वाले, उपदेश का बाना बनाए डोलते रहते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि किसी के उपदेश या विचार ग्रहण करने से पूर्व उसके प्रत्यक्ष कार्यों को भी देखा और परखा जाए। जो कार्य की कसौटी पर खरा उतरे, जिसके नियम आचरण की भित्ति पर खड़े हों, उसी कर्ममार्गी के विचार ग्रहण किए जाएँ।
इच्छाओं का सागर जब हिलोरें लेता है, तब वह कल्पना के समस्त मादक आकर्षण के साथ अनेक बात कहता है, हम कल्पना के लंबे हाथों से संसार का सब कुछ पकड़ लेना चाहते हैं। संसार की कठोर चट्टानों का, जिन पर सृष्टि के अगणित व्यक्तियों की सुकुमार महत्त्वाकांक्षाएँ टूट चुकी हैं, हमें ज्ञान नहीं रहता। कामनाएँ नित्य ही हाथ पसारा करती हैं, पर संसार की सीमाएँ और हमारी मजबूरियाँ हमें जहाँ की तहाँ रहने देती हैं। कामनाएँ उतनी ही सिद्ध होती हैं, जितनी कर्म में परिवर्तित हो जाती हैं।
जब तक जीवन में अनुभवजन्य ज्ञान की कमी है, तब तक मनुष्य स्वप्नों के मनोरम लोक में विहार करता रहता है परंतु जैसे-जैसे उसे संसार की बाधाओं का ज्ञान होता है, वैसे-वैसे उसे प्रतीत होता है कि कल्पनाओं और योजनाओं का जो रूप उसने प्रारंभ में कल्पना के नेत्रों से देखा था, वास्तव में वह वैसा नहीं है। वास्तविक रूप अज्ञान के अनुभव को ही कहते हैं। अनुभव कर्म से प्राप्त होता है। कर्म के साथ ही जीवन में सफलता जुड़ी रहती है।
एक कवि ने लिखा है, "जहाँ जीवन घायल पंछी-सा रात-दिन चीखें मार रहा है, वहाँ कल्पना की ऊँची उड़ानों में डूबा रहना, जीवन का उपहास करना है।"
संसार में जो कुछ शिव और सुंदर दृष्टिगोचर होता है, वह मनुष्य की श्रमशीलता का ही सुफल है। कला-कौशल की सारी उपलब्धि श्रम के आधार पर ही होती है। यदि मनुष्य ने श्रम को न अपनाया होता तो वह भी अन्य पशुओं की तरह पिछड़ी स्थिति में पड़ा रहता। मनुष्य को छोड़कर संसार के सारे प्राणी आज भी उसी आदि स्थिति में रह रहे हैं, जिसमें वे सृष्टि के आरंभ में थे। मनुष्य की प्रगति का कारण उसकी श्रमशीलता ही है।
मनुष्य ने श्रम करके अपने रहने के लिए मकान बनाए, पहनने के लिए कपड़ा तैयार किया और खाने के लिए खेती का धंधा अपनाया यहीं नहीं जीवन को और अधिक सुंदर तथा सुखदाई बनाने के लिए अनेक प्रकार के कला-कौशल का विकास किया। वह जीवन की सुविधा के लिए कोई एक चीज बनाकर वहीं नहीं रुक गया बल्कि उसको अधिकाधिक विकसित तथा सुंदर बनाने के लिए निरंतर श्रम करता रहा तभी वह एक साधारण झोंपड़ी से चलकर बड़े-बड़े प्रासादों तक आ सका है। साधारण बोने-काटने से लेकर असाधारण उद्योग-धंधों तक पहुँच सका है। नग्नता ढकने से लेकर पट-परिधानों तक का निर्माण कर सका है। इतनी प्रगति तथा उन्नति मनुष्य अपनी श्रमशीलता के बल पर ही कर सका है।
यदि रहन-सहन की साधारण सुविधाओं को निर्मित करके मनुष्य वहीं रुक जाता है और अपनी श्रमशीलता का परित्याग कर देता तो वह इतनी उन्नति किस प्रकार कर सकता था और अब भी जिस दिन मनुष्य अपनी श्रमशीलता को छोड़ देगा बना हुआ संसार बिगड़ने लगेगा। महल अट्टालिकाएँ खंडहरों में बदलने लगेगी। पट-परिधान पत्तों और छालों तक लौटने लगेंगे और सुंदर खाद्य बनैली वस्तुओं तक सीमित होने लगेंगे। आशय यह है कि श्रमशीलता त्यागते ही संसार आदिकालीन वनचरता की ओर पुरोगामी होने लगेगा।
कोई भी उन्नति, प्रगति अथवा सुंदर सुरक्षित रहने के लिए मनुष्य की अनवरत श्रमशीलता की अपेक्षा रखती है। आज भी संसार में हजारों लाखों खंडहर ऐसे पाए जाते हैं, जो मनुष्य की श्रमशीलता की गवाही देते हुए, उसके आलस्य एवं उदासीनता पर आँसू से बहा रहे होते हैं।
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- सफलता के लिए क्या करें? क्या न करें?
- सफलता की सही कसौटी
- असफलता से निराश न हों
- प्रयत्न और परिस्थितियाँ
- अहंकार और असावधानी पर नियंत्रण रहे
- सफलता के लिए आवश्यक सात साधन
- सात साधन
- सतत कर्मशील रहें
- आध्यात्मिक और अनवरत श्रम जरूरी
- पुरुषार्थी बनें और विजयश्री प्राप्त करें
- छोटी किंतु महत्त्वपूर्ण बातों का ध्यान रखें
- सफलता आपका जन्मसिद्ध अधिकार है
- अपने जन्मसिद्ध अधिकार सफलता का वरण कीजिए